ATHRV SINGH THAKUR पहले हिंदू बनो
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Joined September 2020
प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन। इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।।५ ।। "कठोपनिषद् - द्वितीयाध्याये: द्वितीया वल्ली" सूक्ष्म और रहस्यपूर्ण सूत्र है। यह बताता है कि मनुष्य का जीवन केवल प्राण और अपान अर्थात् श्वास और निःश्वास से संचालित नहीं है। वास्तविक जीवन उस परम
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"आत्मबोधः" दिग्देशकालाद्यनवेक्ष्य सर्वगं शीतादिहृन्नित्यसुखं निरञ्जनम्। यस्स्वात्मतीर्थं भजते विनिष्क्रियः स सर्ववित्सर्वगतोऽमृतो भवेत् ।।६८।। भगवद्पाद आदि शंकराचार्य कृत आत्मबोध ग्रन्थ का यह अन्तिम श्लोक सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार प्रस्तुत करता है। इसमें आत्मा के स्वरूप, उसकी
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अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः। देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते। एतद्वै तत् ।।४।। "कठोपनिषद् - द्वितीयाध्याये: द्वितीया वल्ली" जब शरीर में स्थित देही (आत्मा) इस शरीर से विलग होकर प्रस्थान करता है, जब प्राणों का सम्बन्ध शरीर से ढीला पड़ने लगता है — तब क्या शेष रहता
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"आत्मबोधः" हृदाकाशोदितो ह्यात्मा बोधभानुस्तमोपहृत्। सर्वव्यापी सर्वधारी भाति भासयतेऽखिलम् ।।६७।। भगवद्पाद आदि शंकराचार्य इस श्लोक में बताते हैं कि आत्मा हृदय रूप आकाश में उदित हुआ ज्ञान-सूर्य है, जो अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करता है। यह आत्मा सर्वव्यापक और सर्वधारण करने
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ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति । मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ।।३।। "कठोपनिषद् - द्वितीयाध्याये: द्वितीया वल्ली" उपनिषदों की उन दिव्य सूक्तियों में से है जो मानवीय देह में परमात्मा की उपस्थिति को रहस्यात्मक, योगपरक और दार्शनिक रूप से उद्घाटित करती हैं। इसमें
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जो राष्ट्र अपने इतिहास को नहीं जानता, जो राष्ट्र अपने देश के महापुरुषों को नहीं जानता; वह राष्ट्र, हमेशा गुलामी के मार्ग पर खड़ा रहता है। #UnityMarch #SardarVallabhbhaiPatel
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हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद् अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ।।२।। "कठोपनिषद् - द्वितीयाध्याये: द्वितीया वल्ली" यहाँ “हंसः” शब्द से तात्पर्य उस परमात्मा से है, जो प्राणरूप से समस्त जगत् में व्याप्त है, जो सबमें प्रविष्ट होकर
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गुरुग्राम (हरियाणा) की मेयर, आदरणीया श्रीमती राजरानी मल्होत्रा जी के स्नेहपूर्ण और आत्मीय आमंत्रण पर श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, अनन्तश्रीविभूषित, जूनापीठाधीश्वर, आचार्यमहामण्डलेश्वर पूज्यपाद श्री ��्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज “पूज्य आचार्यश्री जी”
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पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः। अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते। एतद्वै तत् ।।१।। "कठोपनिषद् - द्वितीयाध्याये: द्वितीया वल्ली" यह कठोपनिषद् का अत्यंत गूढ़ और दार्शनिक मंत्र है ! ‘पुरम् एकादशद्वारम्’ - यह देह एक ‘नगर’ है, जिसमें एकादश द्वार (ग्यारह द्वार) हैं - दो नेत्र, दो
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यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति । एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ।।१४।। "कठोपनिषद् - द्वितीयोध्यायः प्रथमवल्ली" यह मंत्र अत्यंत गहन दार्शनिक और व्यावहारिक संकेत देता है। भाष्यकार भगवान् भगवद्पादाचार्य आदि शंकराचार्य के अनुसार, इसमें द्वैत-दृष्टि और अद्वैत-बोध के
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अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः । ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः । एतद्वै तत् ।।१३।। "कठोपनिषद् - द्वितीयोध्यायः प्रथमवल्ली" यह मंत्र आत्मा की दिव्यता और नित्यत्व का अद्भुत निरूपण करता है। भाष्यकार भगवान भगवद्पादाचार्य आदि शंकराचार्य के अनुसार “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः”
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अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते। एतद्वै तत् ।।१२।। "कठोपनिषद् - द्वितीयोध्यायः प्रथमवल्ली" यह मंत्र आत्मस्वरूप पुरुष की सूक्ष्म उपस्थिति और उसकी सर्वाधार सत्ता का अद्वैत बोध कराता है। आदि शंकराचार्य के अनुसार “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः”
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