चाय, इश्क और राजनीति।
@chayisquerajnit
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"इतिहास का मास्टर, सत्ता का स्टोरीटेलर!" प्रिय विकास दिव्यकृति, रात के ढाई बज रहे हैं। जिन सड़कों पर दिनभर गाड़ियाँ दौड़ती थीं, अब वहाँ सन्नाटा पसरा है। इन सूनी गलियों पर अब कुत्तों का कब्जा है। रात होते ही जैसे उनके अधिकार क्षेत्र का ऐलान हो जाता है - जो भी गलती से वहाँ से
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"अकेलापन: वह मौन अतिथि जिसे हम सब जानते हैं।" प्रिय अकेलापन, तुम्हें ख़त लिखना बिल्कुल वैसा है, जैसे किसी ऐसे रिश्तेदार को पत्र भेजना, जो हर त्योहार पर बिना बुलाए आ जाते है, और जाते भी नहीं। मैं तुम्हें भगाने नहीं, समझने के लिए लिख रहा हूं। क्योंकि जितना तुमने मुझे तोड़ा है,
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"अकेलापन: वह मौन अतिथि जिसे हम सब जानते हैं।" प्रिय अकेलापन, तुम्हें ख़त लिखना बिल्कुल वैसा है, जैसे किसी ऐसे रिश्तेदार को पत्र भेजना, जो हर त्योहार पर बिना बुलाए आ जाते है, और जाते भी नहीं। मैं तुम्हें भगाने नहीं, समझने के लिए लिख रहा हूं। क्योंकि जितना तुमने मुझे तोड़ा है,
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यूपी जैसा राज्य में कांग्रेस का हाल एकदम बेकार और फिर बिहार में जिसके लिए कोई शब्द खोजना पड़ेगा, कांग्रेस ने दो बड़े राज्य को बुरी तरह खोया उनके हाथ से महाराष्ट्र भी निकला है। इन राज्यों का लोकसभा सीट बहुत ज्यादा है। अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का हाल और बुरा होने वाला है।
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मेरा मानना है कि वोट चोरी एक अच्छा मुद्दा है, सरकार और एजेंसियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि वोट चोरी होती है और इसपर सवाल उठना भी चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि यह मुद्दा जनता का मुद्दा नहीं है। इससे भाजपा की छवि जरूर खराब होगी, पर आपको वोट नहीं मिलेगा।
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पार्टी के प्रवक्ताओं की वजह से चुनाव हार गए, मेहनत नहीं कर पाए, कुछ जयचंदों ने हरवा दिया, पार्टी तथाकथित ‘स्वर्ण-विरोधी’ थी इसलिए हार गई। ये सब मनगढ़ंत तर्क हैं। हर कोई अपनी सुविधानुसार कहानी गढ़ रहा है। सच इससे कहीं ज़्यादा सीधा है। हकीकत यह है कि बीजेपी इस बार ज़मीन पर बेहद
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ये दर्द ‘चाय, इश्क़ और राजनीति’ तुम्हारा ही नहीं कईयों का है। दरअसल दक्षिण पंथ और वामपंथ के धुर समर्थकों ने सब कुछ इतना रैडिकलाइज कर दिया है कि कोई भी अपनी पसंद के अलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहता है। पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को सब अपने हिसाब से बोलते लिखते देखना चाहते हैं। ऐसा न
तुम कहना क्या चाहते हो? अगर मैं किसी बात पर कांग्रेस की आलोचना कर दूं तो मैं "बदल गया"? क्या कांग्रेस मेरे घर का राशन भेजती है? क्या महीने की तनख्वाह देती है मुझे? मैं न कांग्रेस का ठेकेदार हूं, न भाजपा का भाड़े का आलोचक। कांग्रेस की विचारधारा पसंद है मुझे, लेकिन इसका मतलब ये
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तुम कहना क्या चाहते हो? अगर मैं किसी बात पर कांग्रेस की आलोचना कर दूं तो मैं "बदल गया"? क्या कांग्रेस मेरे घर का राशन भेजती है? क्या महीने की तनख्वाह देती है मुझे? मैं न कांग्रेस का ठेकेदार हूं, न भाजपा का भाड़े का आलोचक। कांग्रेस की विचारधारा पसंद है मुझे, लेकिन इसका मतलब ये
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"PK और बिहार: सपनों, संघर्षों और सच्चाइयों का अनकहा पक्ष।" प्रिय प्रशांत किशोर, @PrashantKishor बिहार की राजनीति… आप तो जानते ही हैं, पर फिर भी लिखने का मन करता है। किसी पुराने जख़्म को कुरेदना, ताकि दर्द समझ में आए, और समझ आए कि दर्द आखिर क्यों है। बिहार कोई राज्य नहीं, एक
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कांग्रेस कुछ ना करे बस अपना पकड़ ग्राउंड पर बनाये, और नैरेटिव पर काम करे। नहीं तो भगवान ही बचाए उसे।
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उसने आख़िरी कॉल पर धीमे से कहा था – “मैं बहुत बुरी हूँ ना… तुम मुझसे कहीं बेहतर लड़की डिजर्व करते हो।” और मैं, अपने ही आँसुओं में घुटते हुए, बार-बार सिर्फ़ एक बात दोहरा पा रहा था – “नहीं… तुम सबसे अच्छी हो। तुमसे अच्छी कोई हो ही नहीं सकती।” मैं उसे मनाने में नहीं, उसे उसकी
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देखो भाई, मैं यूट्यूब से अपनी कमाई के पैसे खर्च करके फील्ड रिपोर्टिंग करता हूं. किसी नेता या पार्टी का न कोई अहसान लेता हूं, न किसी के 'इंतजाम' में ठहरता हूं , न किसी के यहां चक्कर लगाता हूं, न किसी के गुड बुक में रहने का जतन करता हूं , न किसी को खुश करने के लिए वीडियो बनाता हूं.
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हां, 200 से ज़्यादा सीटें जीतना बिल्कुल वोट-चोरी जैसा लगता है। NDA लगभग 160 सीटों पर आकर टिक गई थी, मान लेते है। यानी वास्तविक लड़ाई में भी महागठबंधन हार ही रहे थे। लेकिन कांग्रेस की अपनी कमजोरियाँ भी किसी से छुपी नहीं हैं। जिन बड़े नेताओं को चुनाव की ज़िम्मेदारी दी गई थी, उनमें
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बिहार चुनाव के परिणाम ने राजनीति पेच को थोड़ा अजीब तो कर दिया है। नीतीश चाचा थोड़े कमजोर हो गए हैं। बीजेपी उसे किस तरह देखेगी यह देखना महत्वपूर्ण होगा। पेंदी को मजबूत करना होगा चाचा को।
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"बिहार चुनाव की असली स्क्रिप्ट किसने लिखी? " प्रिय ज्ञानेश कुमार जी, आपको यह चिट्ठी लिखते हुए मेरे मन में अजीब-सी खामोशी है। वही खामोशी जो किसी लोकतांत्रिक दस्तावेज़ के पन्नों से आती है, जब उस पर कलम चल तो रही होती है, लेकिन आवाज़ जनता की नहीं, किसी और की होती है। मैं आपको
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मैं ये नहीं कह रहा कि चुनाव आयोग ने कोई कमाल कर दिया। सच तो ये है कि उनका काम बेहद खराब रहा, इतना खराब कि लोकतंत्र की रीढ़ ही हिल जाए। मगर एक बात साफ़ है: आप भाजपा से लाख असहमत हों, उनकी राजनीति से चिढ़ते हों, पर उनके संगठन की मशीनरी को देखकर दाद देनी ही पड़ती है। जिस अनुशासन,
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खेसारी लाल यादव और रितेश पांडे दोनों हार रहे हैं। मैथिली लगभग जीत रही हैं। 🙂
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